गुरुवार, 22 जुलाई 2010

यादों के झरोखों से ......!!!



कल बरसों बाद अपने इस घर के छोटे से कमरे में आया,
तो यादों के एक कारवें से रूबरू हुआ...कमरे के हर एक कोने मै बसा यादों का धुंआ,मेरी आँखों से एक लम्हां चुरा गया..यादों का धुंआ आज फिर मेरी पलकों को भिगो गया...कमरें मै पड़ी एक पुरानी मेज़, उस पर सजी चंद किताबें..और उनपें जमीं धुल कि चांदर सी लिपटी हुई एक परत..मैने एक किताब को अपने हाथों मै लिया, और बारी-बारी से,अपने नरम हाथों से धूल कि चांदर को हटाया, तो यूँ लगा जैसे किताबें मेरा शुक्रिया अदा कर रही हो..मेज़ के नीचे दराज़ को खोल के देखा तो. उसमें पड़ी एक पुरानी डायरी मिली, जो कुछ बरस पुरानी थी (जो कॉलेज के ज़माने कि थी ) ..जिसमे ज़िन्दगी के कुछ हसीं पल कैद किये थे मैने..ज्यूँ ही डायरी के पन्नो को पलटने लगा..अचानक तुम्हारी एक तस्वीर के दीदार हुए..मैने तुम्हारी तस्वीर को अपने हाथों मै लिए निहारने लगा..वही बड़ी बड़ी आँखें ..वही मुस्कुराता हुआ चेहरा ..मुझे अनायास  बीते हुए पलों कि और ले गया...मेरे अनगिनत से सवालात .. और तुम्हारी खमोशी, शायद तुम्हारी तस्वीर से बातें करने लगा था उस पल मैं ..सब कुछ तो वैसे ही था ...फिर भी यूँ लगा कि मुझसे कह रही हो ..कि बहुत बदल गये हो तुम...मेज़ के दराजों मै तुम्हारी यादों को तलाशने लगा था मैं..शायद तुम्हारी यादों के उन लम्हों को छूना चाहता था मैं. नज़र इधर-उधर दोड़ाई तो ..तो एक ख़त मिला..जो तुमने लिखा था मुझसे कुछ बरस पहले..दिल कि धड़कने तेज़ होने लगी, और आँखों के सामने वो कॉलेज का ज़माना, वो मस्तियाँ,
वो घंटों बातें करना...उन पहाड़ी वाले रास्तों पै..बे-मतलब बे-परवाह मीलों चलना..सामने खड़े पेड़ों को गिनना ..
वो तुम्हारी ice-cream के लिए जिद करना ..पहाड़ों पै पत्थर से लकीरे खीचना, और अपने नाम के साथ मेरा नाम लिखना. याद है मुझे उस रोज़ जब हम उस पहाड़ी पै उस बड़े पेड़ के निचे बैठे थे ..बाँहों में बाहें डाले हुए..तुम्हारी आँखों मै आसूं के कुछ बुँदे थी...शायद इसलिए कि उस जगहा पै हमारी. आंखिरी मुलाक़ात थी ...और तुमने उस पल मेरा हाथ थामते हुए पूछा था, मनीष कब तक यूँ ही साथ रहोगे.......??? कब तक यूँ ही साथ दोगे ??
सहर कि हवाओं मै कहीं इस खुशबू को भुला तो ना दोगे..?? तुम्हारे इन सवालों से ...मेरी आँखें भी नम हो गई थी उस पल..याद है ना तुम्हें ........हाँ याद ही होगा ..


तुम्हें याद रखने कि आदत जो थी ..


अचानक कमरे मै किसी के आने कि आहट, ख्यालों कि दुनिया मै भटक रहे मुसाफिर को कब वापस हकीकत कि दुनिया मै ले आई..अहसास भी ना हुआ...सामने एक मित्र खड़ा था..शायद मुझसे मिलने आया था..बरसो बाद मिल रहे थे हम दोनों..मेरी आँखों से छलकते आसुओं कि चंद बूदें..और लब पै ख़ामोशी..सब कुछ बयां कर रही थी ...मेरे  खामोश लब आज फिर मेरे जेहन मै कुछ सवालात छोड़ गये...क्या तुम्हें अब भी मेरी याद आती है.........??
शायद  आती होगी....मुझे जो बहुत आती है....

तुम और तुम्हारी यादें ...जीने नहीं देती  मुझे .......!!!






   तुम्हारा .
मनीष मेहता


(एक ख़्वाब हूँ मै .........ख्व़ाब कभी मरते नहीं भटकते रहते है अक्सर दर-बदर )




(चित्र - गूगल से )