शनिवार, 11 अप्रैल 2009



मंजिलें भी उसकी थी
रास्ता भी उसका था


एक में अकेला था


काफिला भी उसका था


साथ-साथ चलने कि सोच भी उसकी थी


फिर रास्ता बदलने का फैसला भी उसका था


आज क्यों अकेला हूँ मैं... ?


दिल सवाल करता है यह ....


लोग तो उसके थे ,


क्या खुदा भी उसका था.............



मनीष मेहता........


माँ मुझे फिर से एक बार आँचल में छुपा लो ना

की बहुत रोया हूँ आज मुझे खुद से बचा लो ना....

इतना टूटा हूँ कि कहाँ से कैसे क्या क्या समेटू
तुम ही मेरे वजूद कि किरचियाँ बीनकर उठा लो ना.....

उफक तक देख देख कर थक गया हूँ मैं तुम्हें माँ,

ना तारा भी हो गर तो मुझे अपनी रौशनी बना लो ना ...

बहुत ज़्यादा दर्द है आज दिल में मेरे जाने ,

क्यूँ एक बार प्यार से अपने सीने से लगा लो ना...

ऑंखें बंद करता हूँ तो सामने चलती फिरती हो तुम
एक बार छूकर मुझे हैरां भी कर दो, हंसा भी दो ना...

तुम्हारी ज़िन्दगी का फलसफा फ़क़त ज़ब्त था ना .....माँ॥

आज ज़रुरत है मुझे इसकी,क़माल-ए-ज़ब्त सिखा दो ना
ये सब कहकर खुद को तसल्ली दे रहा हूँ ।

दरअसल तुम कैसे जीती थीं अपनी माँ के बगैर॥

बस आखिरी बार आके यह सिखा दो, बता दो ना !!

मनीष मेहता .......



(चित्र :- गूगल से)