सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

तेरे बिना !

तेरी आहट से सारा घर फिर जीने लगता है,
वरना इस सहर के बेजान किसी पुर्जे की तरहा  !

अड़ा रहता है किसी कोने में, सुस्त सहमा डरा सा,
तेरे आने से चलने लगती सांसें इसकी ...!

दरवाज़े-खिड़कियाँ, परदों के कानो में खुसफुसातें है,
मुझसे तो जैसे रूठ गया है हर कमरा इसका  ..!

मुह फेर के बैठा रहता है हमेशा,
बिस्तर का तो हाल मत पूछो...!

हमारी पिछली मुलाक़ात की हर याद
समेट के रखी है इसके सरवटों में ..!

इक सिसकी सी सुनाई देती है आधी रात को,
 बहुत तरसता है ये घर मेरा तुम्हारे लिए !




 

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